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आ या॑ह्यग्ने प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वा म॒न्द्रो दे॒वानां॑ स॒ख्यं जु॑षा॒णः। आ सानु॒ शुष्मै॑र्न॒दय॑न्पृथि॒व्या जम्भे॑भि॒र्विश्व॑मु॒शध॒ग्वना॑नि ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yāhy agne pathyā anu svā mandro devānāṁ sakhyaṁ juṣāṇaḥ | ā sānu śuṣmair nadayan pṛthivyā jambhebhir viśvam uśadhag vanāni ||

पद पाठ

आ। या॒हि॒। अ॒ग्ने॒। प॒थ्याः॑। अनु॑। स्वाः। म॒न्द्रः। दे॒वाना॑म्। स॒ख्यम्। जु॒षा॒णः। आ। सानु॑। शुष्मैः॑। न॒दय॑न्। पृ॒थि॒व्याः। जम्भे॑भिः। विश्व॑म्। उ॒शध॑क्। वना॑नि ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:7» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसा राजा श्रेष्ठ होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) बिजुली के तुल्य राजविद्या में व्याप्त ! (देवानाम्) विद्वानों के (सख्यम्) मित्रपन को (जुषाणः) सेवते हुए (मन्द्रः) आनन्ददाता (शुष्मैः) बलों के साथ (पृथिव्याः) पृथिवी के (सानु) शिखर के तुल्य विज्ञान को (आ, नदयन्) अच्छे प्रकार नाद करते हुए विद्युत् के तुल्य (जम्मेभिः) गात्र नमाने से (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् (वनानि) सूर्य की किरणों के तुल्य धनों की (उशधक्) कामना करते हुए (पथ्याः) धर्ममार्ग को प्राप्त होनेवाली (स्वाः) अपनी प्रजाओं को (अनु, आ, याहि) अनुकूल आइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो बिजुली के तुल्य पराक्रमी, सूर्य के तुल्य प्रतापी, अपनी अनुकूल प्रजाओं को न्याय से आनन्दित करता है, वही उत्तम राजा होता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशो राजा श्रेयान् भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! देवानां सख्यं जुषाणो मन्द्रः शुष्मैः पृथिव्याः सान्वा नदयन्विद्युदिव जम्भेभिर्विश्वं वनान्युशधक्सन् पथ्याः स्वा अन्वा याहि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ याहि) आगच्छ (अग्ने) विद्युदिव राजविद्याव्याप्त (पथ्याः) या धर्मपन्थानमर्हन्ति (अनु) अनुकूलाः (स्वाः) स्वकीयाः प्रजाः (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (देवानाम्) विदुषाम् (सख्यम्) मित्रभावम् (जुषाणः) सेवमानः (आ) (सानु) शिखरमिव विज्ञानम् (शुष्मैः) बलैः (नदयन्) नादं कुर्वन् (पृथिव्याः) भूमेः (जम्भेभिः) गात्रविनामैः (विश्वम्) सर्वं जगत् (उशधक्) कामयमानः (वनानि) सूर्यकिरणानिव धनानि ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्युदिव पराक्रमी सूर्य इव प्रतापी स्वानुकूलाः प्रजा न्यायेनानन्दिताः करोति स एवोत्तमो राजा भवति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्युतप्रमाणे पराक्रमी, सूर्याप्रमाणे प्रतापी, आपल्या अनुकूल असलेल्या प्रजेला न्यायाने आनंदित करतो तोच उत्तम राजा असतो. ॥ २ ॥